hindisamay head


अ+ अ-

बाल साहित्य

मनसुखा की सीख

ज़ाकिर अली ‘रजनीश’


जैसे ही हमारा हिंदी का पीरियड छूटा, लड़के भरभराकर कमरे से निकल भागे। मैं अभी अपनी कापी-किताबें सँभाल ही रहा था कि तभी मेरे हाथ में किसी लड़के का धक्का लगा और मेरी एक किताब नीचे गिर पड़ी। गुस्से में भरकर मैंने एक नजर उधर मारी, जिस ओर से धक्का आया था। पर मेरी समझ में नहीं आया कि धक्का किसने मारा है। अतः निराश होकर मैं अपनी किताब उठाने लगा।

किताब उठाते वक्त मेरी नजर सीट के नीचे पड़े एक लिफाफे पर पड़ी। उत्सुकतावश मैंने उसे उठा लिया। लिफाफे में किसी लड़के की हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की मार्कशीट रखी हुई थीं। उन्हें देखकर मेरे चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ गई।

उन दिनों मैं बी.ए. प्रथम वर्ष का छात्र था। अक्सर ही हम लोग दूसरों का सामान छिपा देते थे और चाय समोसा वगैरह खाने के बाद उसे वापस किया करते थे। हालाँकि यह गलत बात थी, पर हम लोगों को इसमें खूब मजा आता था।

जिस लड़के के कागजात खोए थे, उसका नाम था मनसुखा। वह बदहवासी में इधर-उधर मार्कशीट खोज रहा था। मेरे हाथ में लिफाफा देखकर उसे सारी बात समझ में आ गई। पास आकर रुआँसे स्वर में बोला, "भैया, ये कागजात हमें वापस कर दो।"

"क्यों? तुम कालेज के दरोगा हो क्या?" मैंने उसे डाँट दिया।

मेरे इस सवाल पर वह सिटपिटा गया। कुछ सेकेंड के बाद वह पुनः बोला, "पर भैया, हैं तो ये हमारे कागजात न?"

"हाँ, तो मैंने कब कहा कि ये हमारे हैं?" मैंने उल्टा उसी से प्रश्न किया।

लेकिन इससे पहले कि वह कुछ कहता, मेरा एक साथी बोल पड़ा, "देखो भैया, ये तुम्हारे ही कागजात हैं, कीमती भी हैं। अगर खो जाएँ, तो दुबारा बनवाने में हजारों रुपयों का खर्चा आएगा। आएगा कि नहीं?"

मनसुखा ने मजबूरी में हाँ की मुद्रा में गर्दन हिलाई।

"पर हम तुम्हारा हजारों रुपयों का काम दस-बीस रुपयों में ही कर देंगे।" दूसरे साथी ने बात को आगे बढ़ाया, "ऐसा करो, तुम हम लोगों को चाय-समोसा खिला दो और अपने कागज वापस ले लो। क्यों साजिद भाई मैंने सही कहा न?" कहते हुए उसने मेरी तरफ देखा।

"और क्या, हमें तो बस खाने-पीने से मतलब है। तुम्हारे ये कागजात लेकर भला हम क्या करेंगे?"

"पर मेरे पास तो बस दस रुपये ही हैं साजिद भाई।" कहते हुए उसने अपने हाथ जोड़ दिए।

मैं बोला, "ठीक है, इतने से ही काम चल जाएगा। तुम भी क्या याद करोगे कि किस रईस से पाला पड़ा है।"

"हाँ, वो तो है।" उसने जबरदस्ती मुस्कराने का प्रयास किया।

"ठीक है, तो फिर चलो। नेक काम में देर नहीं।" मेरे एक साथी ने कहा और हम लोग होटल की तरफ चल पड़े।

होटल पर पहुँच कर हम लोगों ने चाय समोसे उड़ाए और उसके बाद मनसुखा की मार्कशीट उसके हवाले कर दी। तभी इंटरवल के खत्म होने का घंटा बजा और हम लोग वापस क्लास की ओर चल पड़े।

क्लास में पहुँचने के बाद मैं अपनी सीट पर जा पहुँचा। तभी प्रोफेसर साहब आ गए और पढ़ाने लगे। नोटस लिखने के लिए जैसे ही मैंने अपनी जेब में हाथ डाला, मेरा दिल धक्क से बोला। मेरा पेन गायब था। पेन भी कोई मामूली नहीं, चाँदी का और उसमें इलेक्ट्रानिक घड़ी लगी हुई। मेरी तो जैसे जान ही निकल गई।

उस पेन को कल ही मेरे मामा ने उपहार में दिया था, जिसे वे अरब से लाए थे। आज जब दोस्तों को दिखाने के लिए मैं उसे लेकर स्कूल आ रहा था, तो अम्मी ने टोकते हुए कहा था, "इतना कीमती पेन लेकर स्कूल मत जाओ। कहीं खो गया, तो परेशान हो जाओगे।"

पर दोस्तों पर अपना रौब गाँठने के लिए मैंने अम्मी की न सुनी थी। लेकिन अब, अब क्या होगा? अब तो घर में जरूर डाँट पड़ेगी। काश, मैंने अम्मी का कहना मान लिया होता, तो भला यह नौबत ही क्यों आती?

पर अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गई खेत? अब तो अपनी बेवकूफी पर बस आँसू ही बहाए जा सकते हैं। पेन खोजने के लिए मैं इधर-उधर देखने लगा। यह देखकर प्रोफेसर साहब ने मुझे डाँट दिया।

एक तो पेन की गुमशुदगी, उस पर टीचर की डाँट। पर मैं चाह कर भी कुछ न कर सका और चुपचाप बैठा रहा। पूरे पीरियड भर मैं बेचैन रहा। न तो पेन मिल रहा था और न ही पढ़ाई में मेरा मन लग रहा था। खैर अल्लाह-अल्लाह करके किसी तरह पीरियड खत्म हुआ और मैंने पेन की तहकीकात शुरू की। शक की सुई हर किसी पर जाती थी। पता नहीं किसकी नियत डोल गई हो और...। सो मैं जल्दी-जल्दी लोगों से पूछताछ करने लगा।

"साजिद भाई, कहीं ये तुम्हारा पेन तो नहीं?" आवाज सुनकर मैं तेजी से पलटा। सामने मनसुखा खड़ा था और उसके हाथ में मेरा कीमती पेन जगमगा रहा था। यह वही मनसुखा था, जिसकी मार्कशीट के बदले में मैंने उसके पूरी दस रुपए खर्च करवा दिए थे।

अब तो वह जरूर अपना बदला लेगा। कहेगा - "साजिद भाई, पेन तो बड़ा कीमती मालूम होता है। तुम तो बड़े रईस आदमी लगते हो? फिर तो तुम्हारी जेब भी मोटी होगी। फिर तो किसी फर्स्ट क्लास होटल में दावत होनी चाहिए। बिरयानी, मटन पनीर..."

तभी मेरी तंद्रा टूटी। मनसुखा कह रहा था, "लो सँभालो अपना पेन। सीट के पास पड़ा था। अगर आप बुरा न मानें तो एक बात कहूँगा। आपको इतना कीमती पेन स्कूल में नही लाना चाहिए।"

उसका व्यवहार सुनकर देखकर मुझपर घड़ों पानी पड़ गया। कितना फर्क है मुझमें और इसमें? मैं शहर में पला-बढ़ा, पढ़ाई में कम और चुहलबाजी में ज्यादा मगन रहने वाला साजिद, जिसे दूसरों को सताने में ज्यादा मजा आता है। और यह गाँव-देहात का रहने वाला, गाय सा सीधा-सरल, पढ़ाई में मगन रहने वाला मनसुखा। अच्छी सुविधाएँ पाकर भले ही मेरे नंबर ज्यादा आ जाते हों, पर इनसानियत की हैसियत से तो मैं इसके आगे कुछ भी नहीं।

मेरे मन के किसी कोने से एहसास का ज्वालामुखी सा फटा और मुझे अंदर तक हिला गया। जिसे तुम गँवार और देहाती कहते हो, उसको देखो। तुम उसके आगे क्या हो? मतलबी, स्वार्थी, लालची इनसान? तुम अपने आपको बहुत अच्छा समझते हो। आज तुम्हें पता चला कि अच्छा इनसान किसे कहते हैं?

एहसास के थपेड़ों से जब मेरा हृदय हिलने लगा, तो मैंने माफी माँगने का फैसला किया। लेकिन ये क्या? मनसुखा तो वहाँ तो था ही नहीं। मैंने इधर-उधर देखा, लेकिन वह आस-पास कहीं नजर नहीं आया। मनसुखा तो वहाँ से कभी का जा चुका था। पर अपने पीछे छोड़ वह एक ऐसी सीख छोड़ गया था, जिसे मैं कभी नहीं भूल पाया।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में ज़ाकिर अली ‘रजनीश’ की रचनाएँ